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धारावाहिक प्रस्तुति (14 जून 2019), मुखपृष्ठ संपादकीय परिवार

दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास
मोहनदास करमचंद गांधी

प्रथम खंड : 22. समझौते का विरोध और मुझ पर हमला

रात करीब 9 बजे मैं जोहानिसबर्ग पहुँचा। सीधा अध्‍यक्ष सेठ ईसप मियाँ के घर गया। मुझे प्रिटोरिया ले जाने का पता उन्‍हें चल गया था, इसलिए शायद वे मेरी प्रतीक्षा कर ही रहे थे। लेकिन मुझे अकेला आया देखकर सब लोगों को आश्‍चर्य और आनंद भी हुआ। मैंने सुझाया कि जितने भी लोगों को बुलाया जा सके उतनों को बुलाकर इसी समय एक सभा करनी चाहिए। ईसप मियाँ और दूसरे मित्रों को भी मेरा सुझाव पसंद आया। अधिकांश लोग एक ही मुहल्‍ले में रहनेवाले थे, इसलिए सबको सभा की सूचना करना कठिन नहीं था। अध्‍यक्ष का मकान मसजिद के पास ही था। और हमारी सभाएँ सामान्‍यतः मसजिद के मैदान में ही होती थीं। इसलिए सभा की कोई खास व्‍यवस्‍था करना जरूरी नहीं था। मंच पर केवल एक बत्ती प्रकाश के लिए रखना काफी था। रात के लगभग 11 या 12 बजे यह सभा हुई। समय बहुत थोड़ा था, फिर भी करीब एक हजार आदमी सभा में आ गए थे।

सभा से पहले कौम के जो नेता उपस्थित थे उन्‍हें मैंने समझौते की शर्तें समझाई थीं। कुछ नेताओं ने समझौते का विरोध किया। लेकिन मेरी सारी बातें सुनने के बाद सब लोग समझौते को समझ सके थे। परंतु एक शंका सबके मन में थी : ''जनरल स्‍मट्स अगर दगा करें तो क्‍या होगा? खूनी कानून अमल में भले न आए, लेकिन हमारे सिर पर वह तलवार की तरह लटकता तो रहेगा ही। इस बीच स्‍वेच्‍छा से परवाने लेकर अपने हाथ कटवा देने का अर्थ होगा हमारे पास उस कानून का विरोध करने के लिए जो एक महान शस्‍त्र है उसे स्‍वयं छोड़ देना! यह तो जान-बूझकर शत्रु के पंजे में फँसने जैसा होगा। सच्‍चा समझौता तो यह कहा जाएगा कि पहले खूनी कानून रद हो और बाद में हम स्‍वेच्‍छा से परवाने लें।'' यह दलील मुझे अच्‍छी लगी। दलील करनेवालों की तीक्ष्‍ण बुद्धि और हिम्‍मत के लिए मैंने गौरव अनुभव किया और मुझे लगा कि सत्‍याग्रही ऐसे ही होने चाहिए।

कौम के इन नेताओं की दलील के जवाब में मैंने कहा : ''आपकी दलील बहुत सुंदर है। उस पर गंभीर विचार किया जाना चाहिए। खूनी कानून रद होने के बाद ही हम स्‍वेच्‍छा से परवाने लें, इसके जैसी सुंदर बात और क्‍या हो सकती है? लेकिन इसे मैं समझौते का लक्षण नहीं मानूँगा।

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मानव ही मानव की तीसरी आँख है
संस्मरण
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

उनके भीतर एक गंभीर अनुशासन था। उनकी उपस्थिति में हर गोष्ठी में एक गंभीरता बनी रहती थी। लफ्फाजी वहाँ नहीं चल सकती थी। वात्स्यायन जी चीजों पर गंभीरता से विचार करते, धीरे-धीरे बोलते, कम बोलते और विचारों को पचाकर स्पष्ट ढंग से प्रस्तुत करते। उनके वाक्य विन्यास, उनकी प्रस्तुति और सोच में एक नवीनता की चमक बराबर दिखाई पड़ती थी। तार्किक इतने थे कि बहसों में पूछे गए प्रश्नों को ही उलटकर उत्तर बना देते थे। मैंने देखा, पूरे शिविर में उन्होंने किसी वक्ता पर अपने को लादने की कोशिश नहीं कि, न किसी की बात में कोई हस्तक्षेप किया। बराबर सुनते रहे और जब उनसे अनुरोध किया जाता, तभी बोलते या बहुत जरूरी समझते तभी कुछ कहते। किसी प्रकार के गुस्से या आक्रमण की कोई मुद्रा नहीं। हमेशा एक बड़े लेखक की गरिमा के अनुकूल बोलना और व्यवहार करना वात्स्यायन जी को अन्य तमाम लेखकों से अलग करता था।

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ISSN 2394-6687

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